मुंबई : शिवसेना नेते संजय राऊत सध्या सातत्याने भारतीय जनता पक्षाला लक्ष्य करत आहेत. गेल्या काही दिवसांपासून ते ट्विटरवर हिंदीतले प्रसिद्ध कवी दुष्यंत कुमार यांच्या कवितांच्या माध्यमातून भाजपवर टीका करण्याचा प्रयत्न करत आहेत. त्याचबरोबर दुष्यंत कुमार यांचे कोट्स (विचार), कवितांच्या ओळी नेहमीच सोशल मीडियावर पाहायला मिळतात. परंतु हे दुष्यंत कुमार कोण आहेत? हे काहींना माहिती नाही. दुष्यंत कुमार यांच्या शेकडो कविता इंटरनेवर उपलब्ध आहेत. परंतु त्यांच्याविषयी खूप कमी माहिती इंटरनेटवर आहे. या लेखात दुष्यंत कुमार यांच्याविषयीची काही माहिती तसेच त्यांच्या प्रसिद्ध कवितांबद्दल जाणून घेऊया.


दुष्यंत कुमार त्यागी(1933-1977) उत्तर प्रदेशमधील बिजनौर येथील रहिवासी होते. हिंदी कवी आणि गजलकार म्हणून ते परिचित आहेत. त्यांचा जन्म 1 सप्टेंबर 1933 रोजी उत्तर प्रदेशमधील राजपूर नवादा या गावात झाला.


दहावीत असल्यापासून दुष्यंत कुमार यांनी कविता लिहिण्यास प्रारंभ केला. इंटरमीडिएटचे शिक्षण सुरु असताना त्यांनी राजेश्वरी कौशिक यांच्याशी विवाह केला. अलाहाबाद विद्यापीठामधून त्यांनी हिंदीत बी. ए. आणि एम. ए. चे शिक्षण घेतले. याच काळात त्यांना डॉ, धीरेन्द्र वर्मा, डॉ. रामकुमार वर्मा, कथाकार कमलेश्वर, कथाकार मार्कण्डेय कवी धर्मवीर भारती, कवी विजयदेवनारायण साही यांचा सहवास लाभला. त्यांच्या सहवासात दुष्यंत यांची लेखणी अधिक बहारदार झाली.


पदवीपर्यंतचे शिक्षण घेतल्यानंतर त्यांनी आकाशवाणी भोपाळमध्ये असिस्टंट प्रोड्यूसर म्हणून काम केले. दुष्यंत कुमार हे अत्यंत मनमौजी व्यक्ती होते. ते सुरुवातीच्या काळात दुष्यंत कुमार परदेशी या नावाने लेखन करायचे.


1975 मध्ये त्यांचा 'धूप' हा गजलसंग्रह प्रकाशित झाला. त्यामधील गजलांना खूप लोकप्रियता मिळाली. त्यामधील शेर-शायऱ्या लोकांना तोंडपाठ होत्या. त्याकाळातील वृत्तपत्र आणि वाचक 'धूप'ला तरुणांची गीता (भगवतगीता - युवामन की गीता )म्हणायचे.


'धूप' या गजलसंग्रहामधील काही प्रसिद्ध शेर


⦁ हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए, इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।
⦁ मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही, हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।
⦁ एक जंगल है तेरी आँखों में, मैं जहाँ राह भूल जाता हूँ।
⦁ तू किसी रेल-सी गुजरती है, मैं किसी पुल-सा थरथराता हूँ।
⦁ यहाँ दरख्तों के साये में धूप लगती है, चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए।
⦁ मत कहो आकाश में कुहरा घना है, यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है।
⦁ खास सडके बंद हैं कबसे मरम्मत के लिए, ये हमारे वक्त की सबसे सही पहचान है।
⦁ मस्लहत आमेज होते हैं सियासत के कदम, तू न समझेगा सियासत तू अभी इंसान है।
⦁ कल नुमाइश में मिला वो चीथडे पहने हुए, मैंने पूछा नाम तो बोला कि हिंदुस्तान है।
⦁ गूँगे निकल पडे हैं जुबाँ की तलाश में, सरकार के खिलाफ ये साज़िश तो देखिए।


दुष्यंत कुमार यांच्या प्रमुख कविता
'धूप के पाँव', 'कहीं पे धूप की चादर', 'जलते हुए वन का वसन्त', 'आज सड़कों पर', 'आग जलती रहे', 'एक आशीर्वाद', 'आग जलनी चाहिए', 'हो गई है पीर पर्वत-सी','कहाँ तो तय था', 'कैसे मंजर', 'खंडहर बचे हुए हैं', 'जो शहतीर है', 'जिंदगानी का कोई', 'मकसद', 'मुक्तक', 'आज सडकों पर लिखे हैं', 'मत कहो, आकाश में', 'गुच्छे भर', 'अमलताश', 'सूर्य का स्वागत', 'आवाजों के घेरे', 'मापदण्ड बदलो', 'बाढ की संभावनाएँ', 'इस नदी की धार में'


साहित्यिक कलाकृती
कादंबरी : 'सूर्य का स्वागत', 'आवाज़ों के घेरे', 'जलते हुए वन का बसंत', 'छोटे-छोटे सवाल' , 'आँगन में एक वृक्ष, 'दुहरी जिंदगी'
नाटक : और मसीहा मर गया
काव्य नाटक : एक कंठ विषपायी
लघुकथा : मन के कोण
गजलसंग्रह : साये में धूप


दुष्यंत कुमार एक असे साहित्यिक आहेत ज्यांनी गजल या साहित्यप्रकाराला सामन्य माणसाशी जोडण्याचे काम केले. स्वातंत्र्योत्तर भारतामध्ये त्यांनी सामन्य माणसाला होणारे त्रास, त्याच्या मनातील विचार, देशाची दुर्दशा याविषयी कवितेच्या, गजलेच्या माध्यमातून लेखन केले.


देशाची दुर्दशा पाहून कवी शांत बसू शकत नाही, असे त्यांचे म्हणणे होते. याबाबत दुष्यंत कुमार लिहितात की, "मुझमें बसते हैं करोडो लोग, चुप रहूं कैसे? हर गजल अब सल्तनत के नाम बयान है।"


दुष्यंत कुमार यांच्या प्रसिद्ध कविता


कविता : हो गई है पीर पर्वतसी


हो गई है पीर पर्वतसी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।


आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।


हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।


सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।


मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।
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कविता : मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूँ 


मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूँ,
वो ग़ज़ल आपको सुनाता हूँ..!

एक जंगल है तेरी आँखों में,
मैं जहाँ राह भूल जाता हूँ..!
तू किसी रेल-सी गुज़रती है,
मैं किसी पुल-सा थरथराता हूँ..!

हर तरफ़ ऐतराज़ होता है,
मैं अगर रौशनी में आता हूँ..!

एक बाज़ू उखड़ गया जबसे,
और ज़्यादा वज़न उठाता हूँ..!

मैं तुझे भूलने की कोशिश में,
आज कितने क़रीब पाता हूँ..!

कौन ये फ़ासला निभाएगा,
मैं फ़रिश्ता हूँ सच बताता हूँ..!
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कविता : वो आदमी नहीं है मुकम्मल बयान है

वो आदमी नहीं है मुकम्मल बयान है
माथे पे उसके चोट का गहरा निशान है

वे कर रहे हैं इश्क़ पे संजीदा गुफ़्तगू
मैं क्या बताऊँ मेरा कहीं और ध्यान है

सामान कुछ नहीं है फटेहाल है मगर
झोले में उसके पास कोई संविधान है

उस सिरफिरे को यों नहीं बहला सकेंगे आप
वो आदमी नया है मगर सावधान है

फिसले जो इस जगह तो लुढ़कते चले गए
हमको पता नहीं था कि इतना ढलान है

देखे हैं हमने दौर कई अब ख़बर नहीं
पैरों तले ज़मीन है या आसमान है

वो आदमी मिला था मुझे उसकी बात से
ऐसा लगा कि वो भी बहुत बेज़ुबान है
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कविता : मत कहो आकाश में कोहरा घना है

मत कहो आकाश में कोहरा घना है,
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है।

सूर्य हमने भी नहीं देखा सुबह का,
क्या कारोगे सूर्य का क्या देखना है।

हो गयी हर घाट पर पूरी व्यवस्था,
शौक से डूबे जिसे भी डूबना है।

दोस्तों अब मंच पर सुविधा नहीं है,
आजकल नेपथ्य में सम्भावना है.

कविता : तुझे कैसे भूल जाऊँ


अब उम्र की ढलान उतरते हुए मुझे
आती है तेरी याद, तुझे कैसे भूल जाऊँ।


गहरा गये हैं खूब धुंधलके निगाह में
गो राहरौ नहीं हैं कहीं, फिर भी राह में–
लगते हैं चंद साए उभरते हुए मुझे
आती है तेरी याद, तुझे कैसे भूल जाऊँ।


फैले हुए सवाल सा, सड़कों का जाल है
ये सड़क है उजाड, या मेरा ख़याल है
सामाने–सफ़र बाँधते, धरते हुए मुझे
आती है तेरी याद, तुझे कैसे भूल जाऊँ।


फिर पर्वतों के पास बिछा झील का पलंग
होकर निढाल, शाम बजाती है जलतरंग‚
इन रास्तों से तनहा गुज़रते हुए मुझे
आती है तेरी याद, तुझे कैसे भूल जाऊँ।


उन निलसिलों की टीस अभी तक है घाव में
थोड़ी–सी आंच और बची है अलाव में
सजदा किसी पड़ाव में करते हुए मुझे
आती है तेरी याद, तुझे कैसे भूल जाऊँ।
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कविता : देश


संस्कारों की अरगनी पर टंगा
एक फटा हुआ बुरका
कितना प्यारा नाम है उसका-देश,
जो मुझको गंध
और अर्थ
और कविता का कोई भी
शब्द नहीं देता
सिर्फ़ एक वहशत,
एक आशंका
और पागलपन के साथ,
पौरुष पर डाल दिया जाता है,
ढंकने को पेट, पीठ, छाती और माथा।
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कविता : वसंत आ गया
वसंत आ गया
और मुझे पता नहीं चला
नया-नया पिता का बुढापा था
बच्चों की भूख
और
माँ की खांसी से छत हिलती थी,
यौवन हर क्षण
सूझे पत्तों-सा झडता था
हिम्मत कहाँ तक साथ देती
रोज मैं सपनों के खरल में
गिलोय और त्रिफला रगड़ता था जाने कब
आँगन में खड़ा हुआ एक वृक्ष
फूला और फला
मुझे पता नहीं चला...


मेरी टेबल पर फाइलें बहुत थीं
मेरे दफ्तर में
विगत और आगत के बीच
एक युद्ध चल रहा था
शांति के प्रयत्न विफल होने के बाद
मैं
शब्दों की कालकोठरी में पड़ा था
भेरी संज्ञा में सड़क रुंध गई थी
मेरी आँखों में नगर जल रहा था
मैंने बार-बार
घडी को निहारा
और आँखों को मला
मुझे पता नहीं चला।


मैंने बाजार से रसोई तक
जरा सी चढाई पार करने में
आयु को खपा दिया
रोज बीस कदम रखे-
एक पग बढा।
मेरे आसपास शाम ढल आई।
मेरी साँस फूलने लगी
मुझे उस भविष्य तक पहुँचने से पहले ही रुकना पड़ा
लगा मुझे
केवल आदर्शों ने मारा
सिर्फ सत्यों ने छला
मुझे पता नहीं चला
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कविता : धर्म
तेजी से एक दर्द
मन में जागा
मैंने पी लिया,
छोटी सी एक ख़ुशी
अधरों में आई
मैंने उसको फैला दिया,
मुझको सन्तोष हुआ
और लगा
हर छोटे को
बडा करना धर्म है ।
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कविता : आज सडकों पर


आज सडकों पर लिखे हैं सैकडो नारे न देख,
पर अन्धेरा देख तू आकाश के तारे न देख ।


एक दरिया है यहाँ पर दूर तक फैला हुआ,
आज अपने बाजुओं को देख पतवारें न देख ।


अब यकीनन ठोस है धरती हक़ीक़त की तरह,
यह हकीकत देख लेकिन ख़ौफ़ के मारे न देख ।


वे सहारे भी नहीं अब जंग लडनी है तुझे,
कट चुके जो हाथ उन हाथों में तलवारें न देख ।


ये धुन्धलका है नज़र का तू महज़ मायूस है,
रोजनों को देख दीवारों में दीवारें न देख ।


राख कितनी राख़ है, चारों तरफ बिख़री हुई,
राख में चिनगारियाँ ही देख अंगारे न देख ।